...तो इस लिए उत्तराखंडियों को कहते हैं ‘बलवान’...रिसर्च में क्या निकला ?...पढ़िए
May 5 2017 11:38AM, Writer:हैदर अली खान
आज की इस दौड़ती भागती जिंदगी में हम अपने खान-पान और संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। आलम ये है कि हमारी जिंदगी में यौरोप का ज्यादा प्रभाव बढ़ता चला जा रहा है। उत्तराखंड अपनी बोली, पहनावे और खान-पान के लिए सदियों से जाना और पहचाना जाता है। इस लिए आज हम बात करेंगे कोदा की जिसे 'मंडुआ' भी कहा जाता है। मंडुआ की बात आते ही पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं। वो अद्भुत स्वाद आज भी जहन में है जिसका स्वाद हम बचपन में लिया करते थे। अक्सर नाश्ते में मां से ये फरमाइश करते थे कि ''मां एक क्वादो कु टिकड़ सुबेर खुणी भि बणै दे''। कोदा की खेती का लम्बा इतिहास रहा है। ऐसा माना जाता है कि कोदा यानि मंडुआ का मूल निवास अफ्रीकी महाद्वीप है। मतलब सबसे पहले इसकी खेती अफ्रीका में की गई और करीब 3000 से 4000 साल पहले ये भारत आया था। हड़प्पा की खुदाई में इस बात का पता चला था कि उस समय के लोग भी कोदा की खेती किया करते थे। बाद में कोदा की खेती पहाड़ और पहाड़ी जीवन का अहम हिस्सा बन गया। पहाड़ों में कोदा को 2000 से 3000 मीटर की ऊंचाई पर उगाया जाता है। लेकिन आज पहाड़ों में भी कोदा की खेती करने वाले और इसके स्वाद चखने वालों की तादाद घट गई है। कोदा हमेशा से हमारी संस्कृति, खानपान का अहम हिस्सा रहा है। लेकिन अब पहाड़ों में इसकी खेती कम की जा रही है।
एक रिसर्च के मुताबिक कोदा सेहत के लिए बेहद फायदेमंद है। ऐसा माना जाता है कि पहाड़ी हट्टे कट्ठे मजबूत होते हैं तो उसका काफी श्रेय कोदा को जाता है। कोदा गुणों की खान है। बचपन में गांव के बड़े बूढ़े ये कहा करते थे कि अगर हम लोग पहाड़ी चढ़ लेते हैं तो इसका श्रेय कोदा को जाता है। जिस कोदा को आज पहाड़ी लोग भूल चुके हैं। पहाड़ों में जिसका इस्तेमाल अब कम होता जा रहा है, उसी कोदा को खाने से हड्डियां मजबूत होती हैं। कोदा बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सभी के लिए फायदेमंद है। जापान में तो कोदा से बच्चों के लिए खास तौर पर पौष्टिक आहार तैयार किया जाता है। उत्तराखंड सरकार ने भी सरकारी अस्पतालों में मरीजों को कोदा के बने व्यंजन देने की व्यवस्था की थी। कोदा को 6 महीने के बच्चे से लेकर गर्भवती महिलाओं और बुजुर्गों को दिया जा सकता है। कोदा में कैल्सियम, फासफोरस, आयोडीन, विटामिन बी, लौह तत्वों से भरपूर होता है। इसमें चावल की तुलना में 34 गुना और गेंहू की तुलना में 9 गुना ज्यादा कैल्सियम पाया जाता है। कोदा में इतने गुण हैं कि हम आपको गिनाते-गिनाते थक जाएंगे और आप गिनते गिनते। बस इतन जान लीजिए कि जिस कोदा से पहाड़ियों का मोहभंग हुआ है। वो कोदा बेहद गुणवान है।
कोदा को पहाड़ों में अनाज का राजा भी कहा जाता है। इसके दाने काले या राई के रंग के होते हैं और यही वजह है कि कोदा की रोटियां काली, भूरे रंग की होती हैं। कोदा एक ऐसा अनाज है जिस पर कीड़ा नहीं लगता और इसे लंबे समय तक जमा करके रखा जा सकता है। कोदा की बुवाई मई और जून के महीने में की जाती है। इसकी खेती के लिए बहुत उपजाऊ जमीन और बहुत ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती। जब सीढ़ीनुमा खेतों में कोदा की बुवाई होती है तो धूल उड़ती रहती है। कोदा की बुवाई में 'डामर' भी पड़ जाए तो लोग इस बात की चिंता नहीं करते। बरसात आने पर कोदा की निराई गुड़ाई का काम शुरू किया जाता है। कोदा को छांट छांटकर खेत की मेढ़ पर लगाने में सुख की अनुभूति होती है। इसका पौधा कहीं पर कैसे भी रोप दिया जाए वो लग जाता है। अक्तूबर-नवंबर के महीने में कोदा की फसल तैयार हो जाती है। पौधे के ऊपर का अनाज निकालकर इकट्ठा करके घर के एक कोने में रख दिया जाता है। ये वो कोदा है जो सदियों से पहाड़ का हिस्सा है। लेकिन अब इससे पहाड़ के लोगों का मोहभंग हो रहा है। राज्य समीक्षा का मकसद है कि हम आपको आपकी संस्कृति आपके खान-पान को जिंदा रखें ताकि आप अपने गौरवशाली संस्कृति और उसके इतिहास से कभी ना भटकें और हमेशा उससे जुड़े रहें।