image: It was once the tune of the glory of Uttarakhand

हाय री देवभूमि...कभी इसकी धुन थी उत्तराखंड की शान, अब कोई पहाड़ी इसे पूछता तक नहीं!

May 17 2017 9:58PM, Writer:हैदर अली खान

राज्य समीक्षा के इस खास लेख में आज हम बात कर रह हैं उस बैगपाइप यानी मशकबीन की जो सदियों से पहाड़ियों के दिलों में रचता और बसता है। ये वो संगीत वाद्य है जिसे आज भी शादी-ब्याह में बजाया जाता है और लोग इसे सुनते ही मत्रमुग्द हो जाते हैं। मशकबीन उत्तराखंड के लोकसंगीत में ऐसे घुल मिल गई कि इसके बिना पहाड़ के लोकवाद्यों की लिस्ट अधूरी लगती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि बैगपाइप जोकि स्कॉकटलैंड का राष्ट्रीय वाद्य है वो उत्तराखंड कैसे पहुंचा। इसके पीछे कि क्या कहानी है ? मशकबीन का स्कॉटलैंड से उत्तराखंड तक का सफर बेहद दिलचस्प और रोचक है। बैगपाइप के उत्तराखंड तक पहुंचने की कहानी एक सदी से भी पुरानी है। वो दौर 19वीं सदी का था जब पहाड़ों में ब्रिटिश फौज बैगपाइप को पहली बार लेकर आई, लेकिन बैगपाइप को लोकप्रियता 20वीं सदी में मिली। उत्ताराखंड की शान और मशहूर लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी कहते हैं कि फर्स्ट वर्ल्ड वॉर में हिस्सा लेने गए गढ़वाली और कुमाउंनी सैनिकों ने मशकबीन को सीखा और इस कला को पहाड़ों में लेकर आए। दूसरे विश्वयुद्ध में भी कई गढ़वाली सैनिकों को मशकबीन में ट्रेनिंग दी गई। ये वही सैनिक हैं जिन्हें इस बात का श्रेय जाता है कि इन लोगों ने मशकबीन को पहाड़ों में शादी-ब्याह जैसे समारोहों का हिस्सा बनाया। एक बार जो मशकबीन पहाड़ों की संस्कृति में रचा बसा तो बस उत्तराखंड का ही होकर रह गया। उत्तराखंड लोकसंगीत के जानकार कहते हैं कि पहाड़ों के परंपरागत वाद्य समूह में ढोल, नगाड़ा, डमरू, थाली और हुड़का जैसे वाद्य तो थे, लेकिन फूंक से बजने वाला कोई सुरीला वाद्य नहीं था। मशकबीन ने सुरों की इस कमी को पूरा किया और उत्तराखंड लोकसंस्कृति का हिस्सा बन गई। यो वो मशकबीन है जो कुमाऊं में छोलिया नृत्य और गढ़वाल में पौणा नृत्य में नाचने वालों की कदमताल की खूबसूरती बढ़ा देता है। मशकबीन विवाह जैसे मांगलिक कार्यों और त्यौहारों तक हर मौके के उल्लास को बढ़ा देता है। आज मशकबीन उत्तराखंड की संकृति का हिस्सा बन गया है। बैगपाइप भले ही उत्तराखंड में आकर पहाड़ी लोकसंगीत की पहचान बन गया हो। लेकिन इस पर आज भी अग्रेजों के सिखाए गए धुनों की छाप दिखता है। सुदूर पहाड़ी इलाकों में आज भी आप पुराने वादकों को मशकबीन पर स्कॉोटिश धुनें बजाते सुन सकते हैं। ये और बात है कि मशकबीन बजाने वालों को इस बात की जानकारी नहीं कि वो कहां की धुन बजा रहे हैं। भले ही मशकबीन का मूल स्कॉटलैंड है लेकिन, जिस तरह से इसे बजाने की कला उत्तराखंड में पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ी उसने मशकबीन को उत्तराखंड के लोकवाद्य के रूप में स्थापित कर दिया। उत्तराखंड की संस्कृति में मशकबीन ने अलग पहचान बनाई। लोगों के दिलों पर राज किया। पहाड़ियों के दिलों में बसने के बावजूद बदलते दौर में लोकवाद्यों पर पैदा हुए संकट का असर मशकबीन पर भी दिखता है। ना अब वो दौर रहा और ना ही इसके चाहने वाले। कभी मशकबीन के जरिए कुछ लोग अपनी रोजी रोटी कमाते थे। लेकिन अब पहाड़ों में इसका उतना क्रेज नहीं रहा, और यही वजह है कि युवाओं का मशकबीन से मोहभंग हो गया है। मशकबीन को बजाने वाले हुकुमदास, गुड़डूदास और सेवा दास जैसे मशहूर कलाकार अपनी नई पीढ़ी तक इसे नहीं पहुंचा सके हैं। इनका मानना है कि नई पीढ़ी के युवा रोजगार के दूसरे जरिए को तलाश रहे हैं। इस संकट के बीच मशकबीन को बजाने वाले कलाकार प्रदेश सरकार से मदद की आस लगाए बैठे हैं। इस संकट की तरफ सरकार का ध्यान भी गया है। उत्तसराखंड संस्कृरति विभाग की निदेशक बीना भट कहती हैं कि हमें इस संकट के बारे में जानकारी है। लोकवाद्यों के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए गुरु-शिष्य परंपरा योजना शुरू की गई है, और मशकबीन भी इसका हिस्सा है। सरकार की इस पहल के बाद इस योजना के तहत कई युवा कलाकार मशकबीन का प्रशिक्षण ले रहे हैं। ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले दिनों में सरकार की इस पहल से मशकबीन का धुन लोगों को मदमस्त करेगा। और मशकबीन एक बार फिर अपनी खोई हुई पहचान को वापस कर पाएगा।


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