वीडियो: रक्षाबंधन पर उत्तराखंड में खेला जाता है दुनिया का सबसे खतरनाक खेल, यहां मनाते हैं खून की ‘होली’!
Jul 17 2017 10:42AM, Writer:kailash
दुनिया में जब इंसानी ज़िंदगी शुरू हुई तो इंसान के हाथ में एक पत्थर था। पेट भरने और अस्तित्व को बनाए रखने के संघर्ष के दरम्यान इंसान ने उस पत्थर को हथियार बनाया और जल्द ही औज़ार भी। आदमी और पत्थर की ये दोस्ती सभ्यताओं के विभिन्न दौर से गुजरती हुई इक्कीसवीं सदी के इस मशीनी युग में भी क़ायम रह सकती है, इस बात पर यकीन नहीं आता। लेकिन भारत के पहाड़ी राज्य उत्तरांचल के चंपावत ज़िले के देवीधुरा कस्बे में आज भी आदिम सभ्यता जीवंत हो उठती है जब लोग ‘पाषाण युद्ध’ का उत्सव मनाते हैं। एक-दूसरे पर निशाना साधकर पत्थर बरसाती वीरों की टोली, इन वीरों की जयकार और वीर रस के गीतों से गूंजता वातावरण, हवा में तैर रहे पत्थर ही पत्थर और उनकी मार से बचने के लिये हाथों में बांस के फर्रे लिये युद्ध करते वीर। आस-पास के पेड़ों, पहाड़ों औऱ घर की छतों से हजारों लोग सांस रोके पाषाण युद्ध के इस रोमांचकारी दृश्य को देख रहे हैं। कभी कोई पत्थर की चोट से घायल हो जाता है तो फौरन उसे पास में ही बने चिकित्सा शिविर में ले जाया जाता है।
युद्धभूमि में खून बहने लगता है, पत्थर की बौछार थोड़ी देर के लिये धीमी जरूर हो जाती है लेकिन ये सिलसिला थमता नहीं। हर साल हजारों लोग दूर-दूर से इस उत्सव में शामिल होने आते हैं। ये मेला ‘बग्वाल मेले’ या ‘देवीधुरा मेले’ के नाम से पूरे भारत में प्रसिद्द है। उत्तराखंड के चम्पावत जिले में देवीधुरा एक छोटी सी जगह है जहाँ बाराही देवी मंदिर में प्रतिवर्ष ये मेला आयोजित होता है। ये मेला हर वर्ष रक्षाबंधन के दिन माँ बाराही मंदिर के मैदान में खेला जाता है। इसमें भक्त वहां परंपरा के मुताबिक आपस में पत्थरों की लड़ाई करते है। मान्यता है की मंदिर में नर बलि की परंपरा थी जिसके बाद आधुनिक रूप में ये एक बग्वाल मेला बन गया है, जिसमें एक आदमी के खून जितना रक्त बहता है तब ये पत्थरों का मेला रुकता है। बग्वाल मेला देवीधुरा इलाके में पड़ने वाले गांव के लोग ही खेलते हैं। इसमें वहां रहने वाली जातियां इस पूरे मेले में मिलकर काम करती हैं और इस मेले को सफल बनाती हैं। बग्वाल मेला खेलने वाले लोग ‘द्योका’ कहलाते हैं।
यहाँ इस मेले को खेलने के लिए अलग-अलग खाम होते हैं जो गावं के ही अलग-अलग जातियां होती हैं। इनकी टोलियां ढोल-नगाड़ों के साथ किरंगाल की बनी हुई छतरी जिसे छंतोली कहते हैं, सहित अपने पूरे समूह के साथ मंदिर प्रांगण में पहुंचते हैं। वहां सभी सर पर कपडा बंधे हाथों में सजा फर्र-छंतोली लेकर मंदिर के सामने परिक्रमा करते हैं। यहाँ मुख्य चार खाम हैं जो मैदान में चरों दिशाओं से पत्थर बरसाते हैं। ये चारों खाम गढ़वाल, वालिक, चम्याल तथा लमगड़िया हैं। मंदिर में रखा देवी विग्रह एक सन्दुक में बन्द रहता है । उसी के समक्ष पूजन सम्पन्न होता है । भक्तों की जयजयकार के साथ चारों खाम प्रांगण में उपस्थित होते हैं मंदिर में रखा देवी विग्रह एक सन्दूक में बन्द रहता है । उसी के समक्ष पूजन सम्पन्न होता है । लगता है जिससे चोटिल लोग तुरंत सही हो जाते हैं। वर्तमान समय में अब फूलों के साथ यह युद्ध खेला जाता है। माँ बाराही धाम, उत्तराखंड राज्य में लोहाघाट लोहाघाट-हल्द्वानी मार्ग पर लोहाघाट से लगभग 45 कि.मी की दूरी पर स्थित है। यह स्थान सुमद्रतल से लगभग 6500 फिट की ऊँचाई पर स्थित है।