उत्तराखंड में मौजूद हैं महाकाली के 64 यंत्र, 12 साल की कन्या दिखे तो जान लीजिए...
Jul 28 2017 11:00AM, Writer:शालिनी
उत्तराखंड का ये वो शक्तिपीठ है, जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। एक बात अच्छी तरह से जान लीजिए कि अगर आपने यहां आकर तीन दिन और तीन रात तन, मन, धन से जागरण किया और मां की साधना की तो समझ जाइऐ कि जीन के बाकी दुखों के निवारण के लिए आपको कहीं नहीं जाना पड़ेगा। हर दुख यहां समूल नष्ट हो जाएगा। मां भगवती का असीमित 'शक्तिपुंज' देवभूमि उत्तराखंड में ऊंचाई पर मौजूद है। कालीमठ मंदिर रुद्रप्रयाग में स्थित है। यहां से करीब आठ किमी. खड़ी चढ़ाई के बाद कालीशिला के दर्शन होते हैं। विश्वास है कि मां दुर्गा शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज का संहार करने के लिए कालीशिला में 12 वर्ष की कन्या के रूप में प्रकट हुई थीं। कालीशिला में देवी-देवताओं के 64 यंत्र हैं। मान्यता है कि इस स्थान पर शुंभ-निशुंभ दैत्यों से परेशान देवी-देवताओं ने मां भगवती की तपस्या की थी। तब मां प्रकट हुई।
असुरों के आतंक के बारे में सुनकर मां का शरीर क्रोध से काला पड़ गया और उन्होंने विकराल रूप धारण कर लिया। मां ने युद्ध में दोनों दैत्यों का संहार कर दिया। मां को इन्हीं 64 यंत्रों से शक्ति मिली थी। स्थानीय निवासीओं के अनुसार, यह भी किवदंती है कि माता सती ने पार्वती के रूप में दूसरा जन्म इसी शिलाखंड में लिया था। वहीं, कालीमठ मंदिर के समीप मां ने रक्तबीज का वध किया था। उसका रक्त जमीन पर न पड़े, इसलिए महाकाली ने मुंह फैलाकर उसके रक्त को चाटना शुरू किया। रक्तबीज शिला नदी किनारे आज भी स्थित है। इस शिला पर माता ने उसका सिर रखा था। कालीमठ मंदिर में एक कुंड है, जो रजत पट/ श्रीयंत्र से ढका रहता है। शारदीय नवरात्रों में अष्टमी को इस कुंड को खोला जाता है। मान्यता है कि जब महाकाली शांत नहीं हुईं, तो भगवान शिव मां के चरणों के नीचे लेट गए।
जैसे ही महाकाली ने शिव के सीने में पैर रखा वह शांत होकर इसी कुंड में अंतर्ध्यान हो गईं। माना जाता है कि महाकाली इसी कुंड में समाई हुई हैं। उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग में स्थित यह कालीमठ मंदिर मां काली को समर्पित है। इसे भारत के सिद्ध पीठों में से एक माना जाता है। कालीमठ रुद्रप्रयाग जिले के प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक है। स्कंद पुराण के अंतर्गत केदारखंड के बासठवें अध्याय में मां के इस मंदिर का वर्णन है। रुद्रशूल नामक राजा की ओर से यहां शिलालेख स्थापित किए गए हैं जो बाह्मी लिपि में लिखे गए हैं। इन शिलालेखों में भी इस मंदिर का पूरा वर्णन है। इस मंदिर की स्थापना शंकराचार्य ने की थी। यहां मां काली ने रक्तबीज राक्षस का संहार किया था । इसके बाद देवी मां इसी जगह पर अंर्तध्यान हो गई थीं। आज भी यहां पर रक्तशिला, मातंगशिला व चंद्रशिला स्थित है। नवरात्रि के शुभ अवसर पर इस मंदिर में देश के विभिन्न भागों से हजारों की संख्या में भक्तगण आते हैं।