image: Kashi vishwanath temple uttarkashi

उत्तराखंड में ‘महादेव’ का वो प्रिय स्थान, जहां ‘त्रिशूल रूप’ में विराजमान हैं मां दुर्गा !

Aug 13 2017 8:24AM, Writer:सुरभि

उत्तराखंड की पवित्र धरा में आपको कदम कदम पर चमत्कारों का नजारा ही दिखेगा। अपने में ना जाने कितनी परंपराओं, कितनी संंस्कृति और कितनी सभ्यताओं को बसाए हुए है ये पवित्र देवभूमि। इसलिए दुनिया बार बार इस भूमि को प्रणाम करती है। आज हम आपको उत्तराखंड के एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि कहा जाता है कि इसके दर्शन मात्र से ही वाराणसी के काशी विश्वनाथ के बराबर दर्शन पाने का सुख मिलता है। भारत में यूं तो तीन काशी प्रसिद्ध हैं। एक काशी वाराणसी वाली काशी है। तो दो काशी उत्तराखंड में हैं। पहला है उत्तरकाशी और दूसरा है गुप्तकाशी। गुप्तकाशई के बारे में हम आपको इससे पहले बता चुके हैं। आज हम आपको उत्तरकाशी और यहां के महात्म्य के बारे में बताने जा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है उत्तरकाशी में भगवान् शिव का विराजमान होना।

जी हां भगवान भोलेनाथ यहां काशी विश्वनाथ के रूप में विराजमान हैं। उत्तरकाशई मां भागीरथी के तट पर मौजूद है। इस, नगर के बीचों बीच महादेव का अद्भुत मंदिर बना हुआ है। ये मंदिर पीढ़ियों से आस्थआ का बड़ा केंद्र है। कहा जाता है कि उत्तरकाशी के काशी विश्वनाथ मंदिर के दर्शनों फल वाराणसी के काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शनों के फल के बराबर है। काशी विश्वनाथ का ये मंदिर साल भर भक्तों के लिए खुला रहता है। गंगोत्री जाने से पहले बाबा विश्वनाथ के दर्शन काफी जरूरी हैं। मंदिर के ठीक सामने मां पार्वती त्रिशूल रूप में विराजमान है। कहा जाता है कि राक्षस महिषासुर का वध करने के बाद मां दुर्गा ने अपना त्रिशूल धरती पर फेंका था। ये त्रिशूल यहीं आकर गिरा था। तब से इस स्थान पर माँ दुर्गा की शक्ति स्तम्भ के रूप में पूजा की जाती है।

पुराणों में उत्तरकाशी को 'सौम्य काशी' भी कहा गया है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक उत्तरकाशी में ही राजा भागीरथ ने तपस्या की थी और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर त्रिदेवों में से एक ब्रह्मा जी ने उन्हें वरदान दिया था। वरदान में भगवान ब्रह्मदेव ने कहा था कि भगवान शिव धरती पर आ रही गंगा को धारण कर लेंगे। तब ये नगरी विश्वनाथ की नगरी कही जाने लगी। कालांतर में इसे उत्तरकाशी कहा जाने लगा। कहा जाता है कि विश्वनाथ के इस मंदिर की स्‍थापना परशुराम जी द्वारा की गई थी। इसके साथ ही महारानी कांति ने 1857 ईसवी में इस मंदिर की मरम्‍मत करवाई। महारानी कांति गढ़वाल के राजा सुदर्शन शाह की पत्‍नी थीं। ये भी कहा जाता है कि इस मंदिर को राजा ज्ञानेश्वर द्वारा बनाया गया था। इस मंदिर में जो त्रिशूल मौजूद है, उसकी लंबाई 8 फुट और 9 इंच है।


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