Nov 23 2017 8:15PM, Writer:सोनिया
आज हम आपको उत्तराखंड के ऐतिहासिक शहर का इतिहास बता रहे हैं। ये शहर अपनी ऐतिहासिक संस्कृति, परम्परा और सभ्यता से पूरे उत्तराखंड में अपनी अलग पहचान रखता था। टिहरी..जी हां टिहरी...आज भले ही झील के पानी में पुरानी टिहरी समा गई हो। भले ही पुरानी टिहरी तस्वीरों और इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह गई हो। लेकिन उस संस्कृति और परम्परा को संजोए रखने के लिए हर साल 28 दिसंबर को टिहरी महोत्सव का आयोजन किया जाता है। आगे की स्लाइड्स में जानिए पुरानी टिहरी का इतिहास और कुछ यादगार तस्वीरें
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एक वक्त था जब ब्रिटिश सरकार हिन्दुस्तान पर कब्जा कर रही थी। 18 वीं शताब्दी की शुरूआत में उ्तराखंड में वो दौर आया, जब गढ़वाल का आधा हिस्सा ईस्ट इंडिया कंपनी के पास चला गया। 1803 में सुदर्शन शाह के पिता राजा प्रद्युमन शाह गोरखाओं के साथ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए थे। 12 साल का निर्वासित जीवन जीने के बाद सुदर्शन शाह अपनी बाकी बची हुई रियासत के लिए राजधानी की तलाश में टिहरी आए।
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28 दिसंबर 1815 का दिन था और उन्होंने टिहरी गढ़वाल को अपनी राजधानी घोषित किया। महाराजा सुदर्शन शाह ने 30 दिसबंर 1815 को इस नगर की नींव रखी थी। धीरे धीरे ये रिसायसत आगे बढ़ने लगी। इसके बाद 1887 में महाराजा कीर्ति शाह ने नए राजमहल को बनवाया था। इस महल के निर्माण की कुछ खास बातें हैं। इसके निर्माण में स्थानीय पत्थर और उड़द की दाल के मसाले का गारे के तौर पर इस्तेमाल किया गया था।
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इस बेमिसाल महल को बनाने में 10 साल का वक्त लगा था। इसी दौरान दरबार के पास रानी महल भी बनाया था, इसमें टिहरी दरबार की रानी रहती थी। बताया जाता है कि टिहरी का ऐतिहासिक घंटाघर भी महाराजा कीर्ति शाह की ही देन है। इसकी खास बात ये है कि ये लंदन में बने घंटाघर की कॉपी थी। आजादी के बाद 1949 में टिहरी का विलय हो गया था। इसके बाद टिहरी का राजमहल नरेंद्र नगर में शिफ्ट हो गया था।
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पुरानी इमारतों में सरकारी कार्यालय चलाए जाते थे। इसके बाद एक बड़ा फैसला हुआ। 1965 में तत्कालीन केंद्रीय सिंचाई मंत्री केएल राव ने टिहरी में बांध बनाने की घोषणा की थी। धीरे धीरे इसका निर्माण शुरू हुआ तो 29 जुलाई 2005 को टिहरी शहर में पानी घुस गया। इस वजह से हजारों परिवारों को ये जगह छोड़नी पड़ी थी।
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अक्टूबर 2005 में टिहरी डैम की टनल बंद की गई और पुरानी टिहरी में जलभराव शुरू हुआ। मौजूदा वक्त राजशाही के वक्त से बिल्कुल अलग है, लेकिन आज भी पुरानी टिहरी अपनी सांस्कृतिक लोकपरम्पराओं के लिए अपनी अलग पहचान के लिए जानी जाती है।
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अब टिहरी हमारी यादों में है। वो पुराना घंटाघर , वो राजा का महल, वो सिंगोरी की दुकाने, सब कुछ इतिहास बन गया। लेकिन इतना जरूर है कि हर उत्तराखंडी के दिल में टिहरी एक सम्मान का प्रतीक है, अभिमान का प्रतीक है। धन्य है इस धरा को...जय उत्तराखंड