image: Story of martyr kesri chand

उत्तराखंड के अमर शहीद केसरी चन्द, सिर्फ 24 साल की उम्र में ही देश के लिए कुर्बान...नमन

Dec 15 2017 6:25PM, Writer:कपिल

भारत की आजादी के लिए स्वतन्त्रता संग्राम में लाखों की संख्या में देशभक्तों ने अपना बलिदान दिया था। ये बात भी सच है कि उत्तराखंड के कई सपूत आजादी की इस लड़ाई में कूदे थे। उत्तराखण्ड का स्वतन्त्रता संग्राम में स्वर्णिम इतिहास रहा है। जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा आजाद हिन्द फौज की स्थापना की गई तो उत्तराखण्ड के कई रणबांकुरे इस सेना में शामिल हुए थे। इन्हीं में से एक थे उत्तराखण्ड के वीर सपूत शहीद केसरी चन्द। अमर शहीद वीर केसरी चन्द जी का जन्म 1 नवंबर, 1920 को उत्तराखंड के क्यावा गांव में हुआ था। ये गांव जौनसार में बड़ता है। उनके पिता का नाम पंडित शिवदत्त था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा विकासनगर में हुई। इसके बाद 1938 में डीएवी स्कूल, देहरादून से उन्होंने हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की थी।

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इसी कालेज मे इण्टरमीडियेट की भी पढ़ाई जारी रखी। केसरी चन्द बचपन से ही निर्भीक और साहसी थे, खेलकूद में भी इनकी विशेष रुचि थी। इस वजह से वो टोलीनायक रहा करते थे। नेतृत्व के गुण और देशप्रेम की भावना इनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। इण्टर की परीक्षा पूर्ण किये बिना ही केसरी चन्द जी 10 अप्रैल, 1941 को रायल इन्डिया आर्मी सर्विस कोर में नायब सूबेदार के पद पर भर्ती हो गये। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध जोरों पर चल रहा था, केसरी चन्द को 29 अक्टूबर, 1941 को मलाया के युद्ध के मोर्चे पर तैनात किया गया। जहां पर जापानी फौज द्वारा उन्हें बन्दी बना लिया गया। केसरी चन्द ऐसे वीर सिपाही थे, जिनके हृदय में देशप्रेम कूट-कूटकर भरा हुआ था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नारे “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” से प्रभावित होकर वो आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गये।

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इनके भीतर अदम्य साहस, अद्भुत पराक्रम, जोखिम उठाने की क्षमता, दृढ संकल्प शक्ति का ज्वार देखकर इन्हें आजाद हिन्द फौज में जोखिम भरे कार्य सौंपे गये। इन सभी कार्यों को उन्होंने कुशलता पूर्वक पूरा किया। नेताजी के लिए केसरी चंद एक वफादार सेनानायक थे। बताया जाता है कि केसरी चंद्र के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज ने अंग्रेजों की ईंट से ईंट बजा ली थी। इम्फाल के मोर्चे पर एक पुल उड़ाने के प्रयास में ब्रिटिश फौज ने इन्हें पकड़ लिया और बन्दी बनाकर दिल्ली की जिला जेल भेज दिया। वहां पर ब्रिटिश राज्य और सम्राट के विरुद्ध षडयंत्र के अपराध में इन पर मुकदमा चलाया गया और मृत्यु दण्ड की सजा दी गई। सिर्फ 24 साल 6 महीने की अल्पायु में उन्हें फांसी के फंदे पर चढ़ाया गया था। 3 मई, 1945 को ’भारतमाता की जय’ और ’जयहिन्द’ का उदघोष करते हुए ये वीर सपूत दुनिया से चला गया।


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