पहाड़ के जिस वीर ने अकेले ही 300 चीनी सैनिकों को मार गिराया, उसे अपनों ने ही भुला दिया !
Aug 21 2018 5:52PM, Writer:रश्मि पुनेठा
बीरोंखाल, पौड़ी। 1962 की लड़ाई में गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन के जवान जसवंत सिंह ने अकेले 72 घंटे तक चीनी फौज का सामना किया। इस जांबाज के आगे भले ही चीनी सेना झुक गई हो, लेकिन इस शहीद की शहादत को उनके अपनों ने ही भुला दिया है। चीनी फौज को घुटनों में लाने वाले जसवंत सिंह की वीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारतीय सेना ने उन्हें शहादत के बाद न सिर्फ जीवित माना, बल्कि उन्हें सेवा में मानते हुए नियमानुसार प्रमोशन भी दिया। राइफलमैन पद पर रहते हुए शहीद हुए जसवंत सिंह वर्तमान में सेना ने मेजर जनरल के पद पर हैं। लेकिन इसे आप क्या कहेंगे? जिस शहीद ने अरुणाचल प्रदेश की नूरानांग पोस्ट में अपनी वीरता से चीनी सेना को झुका दिया, उस जाबांज को अपने ही घर में न तो सम्मान मिल पाया, न शासन ने ही कभी उनके गांव की सुध ली। इस बेरुखी का नतीजा है कि मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जसवंत सिंह का गांव खाली होने के कगार पर पहुंच गया है।
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पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं के अभाव के चलते कभी जिस गांव में कभी 30-35 परिवार हुआ करते थे, आज वहां महज पांच-छह परिवार ही रह गए हैं। राज्य गठन के बाद से आज तक उत्तराखंड सरकार ने जसवंत सिंह रावत की कभी कोई सुध नहीं ली। न तो उन्हें पाठ्यक्रम में शामिल किया गया और न उनके नाम से कोई योजना ही शुरू हुई। बाड़ियू विकास समिति के अध्यक्ष रघुवीर सिंह बताते हैं कि आज तक सरकार ने जसवंत सिंह के गांव की सुध नहीं ली। साल 2017 में दुनाव जल-विद्युत परियोजना का शिलान्यास किया गया था और बाड़ियूं जसवंत सिंह का स्मारक बनाने की घोषणा की थी, लेकिन बात आई-गई हो गई। यहां तक कि जिस घर में इस वीर सैनिक का जन्म हुआ था, वह भी खंडहर में तब्दील हो गया है।
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भारतीय सेना ने अपने इस वीर सपूत को पूरा सम्मान दिया। सेना आज भी उन्हें जीवित मानते हुए नियानुसार पदोन्नति देती है। आज भी उन्हों तड़के 4.30 बजे उन्हें बेड टी दी जाती है। नौ बजे नाश्ता और शाम सात बजे रात का खाना दिया जाता है। यही नहीं 24 घंटे उनकी सेवा में सेना के पांच जवान तैनात रहते हैं। उनका बिस्तर भी लगता है। जूतों की बाकायदा पॉलिश होती है और यूनीफार्म पर भी प्रेस की जाती है। जसवंत गढ़ में चीनी फौज की भेंट की हुई उनकी प्रतिमा लगाई गई है। इस रास्ते से गुजरने वाला कोई भी सैन्य अधिकारी और जवान बाबा जसवंत सिंह को श्रद्धांजलि दिए बिना आगे नहीं बढ़ता। आज भी उनके नाम के आगे स्वर्गीय नहीं लगाया जाता। जसवंत सिंह के परिजनों की ओर से जब भी उनके अवकाश के लिए प्रार्थना पत्र भेजा जाता है तो सेना के जवान उनके चित्र को पूरे सैन्य सम्मान के साथ उनके गांव में लाते हैं और छुट्टी खत्म होने पर उस तस्वीर को ससम्मान वापस उनकी पोस्ट पर ले जाया जाता है।