देवभूमि के इस गांव में बनी कंडाली जैकेट, इसे पहनकर CM ने की कैबिनेट मीटिंग
बुधवार को सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत और उनकी कैबिनेट कंडाली से बनी जैकेट पहनकर कैबिनेट मीटिंग में पहुंची, ये जैकेट्स अपने पहाड़ में बनी हैं...
Nov 16 2019 10:49AM, Writer:कोमल नेगी
उत्तराखंड को प्रकृति ने अपने अनमोल खजाने से नवाजा है। कल तक यहां मिलने वाले जिन पौधों-पेड़ों को सिर्फ झाड़ियां समझा जाता था, आज उनके रेशे से कपड़े बनाए जा रहे हैं। अलग-अलग तरह के उत्पाद बनाए जा रहे हैं जो कि विश्व स्तर पर अपनी पहचान बना रहे हैं। पहाड़ में कंडाली, भीमल और इंडस्ट्रियल हैम्स के रेशे से कपड़े तैयार किए जा रहे हैं, इन कपड़ों को प्रोत्साहन देने की एक पहल उत्तराखंड के सीएम दरबार में भी हुई। जहां बुधवार को मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत और उनकी पूरी कैबिनेट कंडाली के रेशों से बनी जैकेट पहन कर पहुंची। सीएम और उनकी कैबिनेट पर ये जैकेट खूब फब रही थी। कैबिनेट बैठक के बाद सीएम ने क्या कहा, ये भी बताते हैं। अपने सोशल मीडिया पेज पर उन्होंने लिखा कि ‘उत्तराखंड में फाइबर से बने कपड़ों के क्षेत्र में प्रबल संभावनाएं हैं। कंडाली, भीमल और इंडस्ट्रियल हैम्प के रेशे किसानों की तकदीर बदल सकते हैं। इसी सोच को प्रोत्साहित करने के लिए बुधवार को कैबिनेट के सभी मंत्रियों ने कंडाली यानि सिसौंण के रेशे से बनी जैकेट पहनी|
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चलिए अब आपको ये बताते हैं कि कंडाली के रेशे से बनी ये जैकेट कहां बनाई जा रही हैं। उत्तराखंड के नंदप्रयाग घाट रोड पर स्थित है मंगरोली गांव। जहां ये जैकेट बनाई जा रही हैं। नंदाकिनी स्वायत्त सहकारिता के लिए काम करने वाली महिलाएं कंडाली के रेशे को चरखे में कातकर इसे उत्तराखंड बांस एवं रेशा विकास परिषद को भेजती हैं। कंडाली की पहली जैकेट शिवांगिनी राठौड़ ने पीपलकोटी में स्थानीय टेलर शिबलाल के साथ मिलकर बनाई थी। इस काम को उत्तराखंड बांस एवं रेशा विकास परिषद और आगाज जैसी संस्थाएं मिलकर आगे बढ़ा रही हैं। कंडाली के रेशे को कार्डिंग के बाद देहरादून लाया जाता है। जहां इसे ऊन के साथ ब्लैंड करने के बाद मंगरोली गांव भेजा जाता है। मंगरोली में इनसे जैकेट्स तैयार की जाती हैं। ये वही जैकेट्स हैं जिन्हें उद्योग निदेशालय ने खरीदकर सीएम तक पहुंचाया था। एक जैकेट की कीमत है 2 हजार रुपये। उद्योग निदेशक अरुण कुकशाल बताते हैं कि साल 1939 में पहाड़ के उद्यमी अमर सिंह रावत ने कंडाली, रामबांस और पिरुल से व्यावसायिक स्तर पर कपड़ा बनाने का काम शुरू किया था। पर साल 1942 में उनकी मौत हो गई और ये विधा आगे नहीं बढ़ पाई। राज्य सरकार को इस काम को आगे बढ़ाना चाहिए। इससे पहाड़ के लोगों को रोजगार का नया जरिया मिलेगा।